Saturday 26 November 2011

.ग़ज़ल का प्रारूप


1.ग़ज़ल का प्रारूप
ग़ज़ल की परम्परागत अवधारणा कई कई शतक पुरानी है इसलिये किसी काव्य रचना का ग़ज़ल कहा जाना इस बात पर आधारित होता है कि उसमें शिल्पगत मान्यताओं का कहां तक निर्वाह हुआ हे? ग़ज़ल के रूपाकार की मूलभूत मान्यताये ही इस अध्याय में हमारी आलोचना का मुख्य विषय है. काव्य शास्त्र में ग़ज़ल के रूप विधान में मतला, मक्ता, रदीफ, काफिया, शेर, मिसरा, बहर इत्यादि का उल्लेख स्पष्टः होता है.
                ग़ज़ल के प्रत्येक चरण को मिसरा कहा जाता है, और दो मिसरे अर्थात दो चरण मिलकर एक शेर की रचना करते हैं. दूसरे शब्दों में दो पंक्तियों का जोड़ा शेर कहलाता है. शेर की पहली पंक्ति का ‘मिसरा-ए-अव्वल’ यानी ऊपर वाला, तथा दूसरी पंक्ति को ‘मिसरा-ए-सानी’(सानी का शाव्दिक अर्थ है दूसरा) कहा जाता है.
ग़ज़ल का प्रथम शेर मतला और अन्तिम शेर मक्ता कहलाता है. ग़ज़ल में कभी कभी सानी मतला भी हो सकता है अर्थात दूसरा मतला, जबकि मतले के बाद के शेर के दोनों मिसरों में मतले की भांति काफिया, रदीफ का निर्वाह किया गया हो.
मतले के दनेा मिसरों, तत्पश्चात् प्रत्यके शेर व मक्ते के दूसरे मिसरे में सबसे अंत में रदी फ से पूर्व काफिया स्थित होता है. ग़ज़ल के मक्ते में तखल्लुस अर्थात रचयिता कवि का उपनाम होता है. मतले से लेकर मक्ते तक ग़ज़ल का प्रत्येक शेर एक दूसरे से असंबद्ध होता है. अर्थात भाव या विचार की दृष्टि से उनमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता. अतः प्रत्येक शेर अपने में पूर्ण एवं स्वतंत्र होता है. ग़ज़ल के प्रारूप को निम्नरूप में सूत्रबद्ध किया जा सकता है.
प्रथा - मतला मिसरा-ए-अव्वल---------------------काफिया, रदीफ.
द्वितीय- शेर मिसरा-ए-सानी----------------------काफिया, रदीफ.
मिसरा-ए-अव्वल---------------------------- मिसरा-ए-सानी--------------------काफिया, रदीफ.
तृतीय, चतुर्थ, पंचम द्वितीय शेर के अनुसार
या अधिकतम जितने
शेर ग़ज़ल में लिखे
गये हों
अन्तिम- मक्ता मिसरा-ए-अव्वल----------------तखल्लुस-------
मिसरा-ए-सानी--------------------काफिया, रदीफ
ग़ज़ल में तखल्लुस का प्रयोग मक्ते के पहले या दूसरे मिसरे में सुविधानुसार किया जा सकता है. ग़ज़ल का प्रत्येक मिसरा जिस वज़न या छंद में होता है, उसे ही बहर कहते है.
शेर की संख्या
शेर ग़ज़ल की न्यूनतम इकाई है, जिसकी संख्या से ग़ज़ल की लम्बाई का अनुमान लगाया जा सकता है. श्री गोपालदास नीरज ने शेर को द्विपदिका तथा चन्द्रसेन विराट ने द्वितीय कहने के एकांकी प्रयास किये है,   किन्तु उपर्युक्त दोनों नाम प्रचलन में नहीं आये. अधिकांश ग़ज़लकारों ने शेर संज्ञा को ही मान्यता दी है. श्री राम नरेश त्रिपाठी ने शेर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है ”यह अरबी भाषा का शब्द है. इसका शाब्दिक अर्थ केश या बाल हैं. जिस प्रकार किसी तरूणी की सुन्दरता का शब्द है. इसका शाब्दिक अर्थ केश या बाल हैं. जिस प्रकार किसी तरूणी की सुन्दरता की अभिवृद्धि में केश सहायक होते हैं वैसे ही किसी ग़ज़ल रूपी सुन्दी के लिये शेर उसके केश सदृश हैं. इन्हें ग़ज़ल की आधारित इकाई भी कह सकते हैं जिनके सहारे ग़ज़ल रूपी इमारत खड़ी की जा सकती है.“(1)
प्रत्येक शेर में दो मिसरे होते हैं और इन मिसरों को तीन भागोें में इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है-
मिसरा-ए-अव्वल - सदर हश्व अरूज
मिसरा-ए-सानी - इब्तिदा हश्व जरब या इजज
ग़ज़ल लेखन में पहले शेर की दूसरी पंक्ति लिखी जाती है, तत्पश्चात पहली पंक्ति , अतः दूसरी पंक्ति के पहले भाग को इब्तिदा कहते हैं जिसका अर्थ हुआ प्रारम्भ. हश्व का तात्पर्य है अनावश्क या खानापूर्ति के लिये.
”ग़ज़ल में आकार के सम्बन्ध में परम्परा यह है कि उसमें कम सेू कम पांच शेर होने चाहिए और अधिक से अधिक सत्रह हो सकते हैं. किन्तु कुछ काव्य शास्त्रज्ञांें के अनुसार अधिकतम की सीमा 25 तक जा सकती है.“ (2) कुंअर बेचैन के अनुसार ”ग़ज़ल में शेरों की संख्या विषम अर्थात दो की संख्या से न कटने वाल होनी चाहिए. जैसे -5,7,9,11 आदि,. आजकल के शायर इस रूढ़ि को भी तोड़ रहे हैं. उनका कहना है कि संख्या की कोई पाबन्दी ग़ज़ल में नहीं होनी चाहिये.“(3) दुष्यंत के बहुचर्चित ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ में संकलित 52 ग़ज़लों में से 22 ग़ज़लों में शेर सम संख्या में हैं. शेरों की संख्या विषम होने की परम्परागत धारणा को नये ग़ज़लकारों ने नकार दिया है. शेरों की संख्या सम होने से ग़ज़ल की प्रभावोत्पादकता में कोई कमी नहीं आती, किन्तु ग़ज़ल में चार या पांच शेर अवश्य होना चाहिये अन्यथा वह भाव सम्पूर्णता भी दृष्टि से अधूरी सी प्रतीत होती है.
मतला और मक्ता
मतला अरबी भाषा का पुल्लिंग शब्द है. जिसका आशय है-उदयस्थल, ग़ज़ल का पहला शेर, अर्थात् ग़ज़ल के पहले दो मिसरों के संयोग को मतला कहते हैं. इसकी प्रत्येक पंक्ति में काफिया वा रदीफ दोनों मिलते हैं. ग़ज़ल के अन्य किसी शेर में ऐसा संयोग नहीं मिलता. उनकी द्वितीय पंक्ति में ही काफिया व रदीफ होते हैं. मतले के बाद यदि सानी मतलला हो तो उसमें भी मतले की तरह काफिया, रदीफ का निर्वाह होता है. गालिब की इसग़ज़ल यह पूर्णतः स्पष्ट हो जायेगा-
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया.
दिल कहां कि गुम कीजे हमने मुद्दआ पाया.
इश्क से तबीयत ने जीस्त का मजा पाया.
दर्द की दबा पाई, दर्दे-लादवा पाया.
गुंचा फिर लगा खिलने आज हमने अपना दिल
खूं किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया.
हाले-दिल नहीं मालुम लेकिन इस कदर पाया.
हमने बारहा ढूंढ़ा, तुमने बारहा पाया.(4)
यहां पहली दोनों पंक्तियों में पड़ा, मुद्दआ काफिया तथा पाया शब्द रदीफ होने से यह ग़ज़ल का मतला है, साथ ही दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में मजा, लादवा, काफिया व पाया रदीफ की पुरावृत्ति से यह हुस्नमतला (सानी मतला) हुआ. किन्तु बाद के सभी शेरों में केवल द्वितीय पंक्ति में हुआ, बारहा, काफिया व पाया रदीफ की पुनरावृत्ति हुई है. मतले के शाब्दिक अर्थ के अनुरूप नीरज ने इसे आरम्भिका तथा चन्द्रसेन विराट ने भावोदय सम्बोधित करने का असफल प्रयास किया है.
मक्ता अरबी भाषा का शब्द है. जिसका अर्थ है-कटा हुआ, विच्छिन्न यह ग़़ज़ल का  अखिरी शेर होता है. अरबी, फारसी व उर्दू परम्परा के अधिकांश शायरों ने इस तथ्य की पहचान कराने के लिये, कि यहां ग़ज़ल पूर्ण होती है और इसके पश्चात अन्य कोई शेर नहीं है. मक्ते में अपने उपनाम (तखल्लुस) का प्रयोग किया है. यों आज भी कुछ-शायर इस परम्परा का औपचारिक  निर्वाह कर रहे हैं. अर्थाथतः यदि मक्ते में तखल्लुस का प्रयोग न किया जाये तो मक्ते की पहचान कर पाना बेहद कठिन होगा क्योंकि शेरों को उत्कृष्ता की दृष्टि से बढते हुए क्रम में रखा जाता है, इस कारण मक्ते को ग़़ज़ल का सर्वश्रेष्ठ शेर बनाने का हर संभव प्रयास ग़़ज़लकारों ने  किया है. किन्तु ग़़ज़ल में बाद का कोई भी अच्छा शेर मक्ता होने का सूचक नहीं है क्योंकि उसके बाद और अच्छा शेर हो सकता है. तखल्लुस के प्रयोग का महत्व इसी कारण है कि वह ग़ज़ल की अंतिम कड़ी होने की सूचना देता है. उदाहरणार्थ-
कहानी दर्द की कल पर उठा रखो ‘तांबा’
थकी हुई है बहुत रात सो गई होगी.(5)
यहां ग़ज़ल के अन्तिम शेर की पहली पंक्ति में ‘तांबा’ कवि का उपनाम है, यथपि ग़ज़लकार उसे द्वितीय पंक्ति में भी रख सकता था. प्रारम्भ में ‘उपनाम’   प्रयोग करने के संभवतः तीन उद्देश्य रहे होंगे-
1-ग़ज़ल के रचयिता कवि से परिचय कराना.
2-ग़ज़ल समाप्ति की सूचना देना.
3-ग़ज़लकार की शायरी के स्तर को स्पष्ट करना. चूंकि मक्ते में तखल्लुस का उपयोग शायर के लिये कठिन चुनौती होता था.
पूर्ववर्ती शायर मक्ते में अपने तखल्लुस का प्रयोग इस ढंग से करते थे कि वह शेर का एक आवश्यक भाग प्रतीत होता था. ये तीन शेर देंखे-
”पूछते हैं वो कि ‘गालिब’ कौन है
कोई बतलाओं कि हम बतलाएं क्या?-गालिब
कोई नामो-निशां पूछे तो ए कासिद बता देना
तखल्लुस ‘दाग’ है वो आशिकों के दिल में रहते हैं.-दाग
बातों बातों में किसी ने कह दिया मुझको ‘अजीज’
उम्र भर की मुश्किलें पल भर में आसां हो गई“-(6)अजीज
उपर्युक्त तीनों शेरों में शायरों का अपने तखल्लुस का प्रयोग आनुषंगिक व सार्थक है. यह विशेषता आजकल देखने में नहीं आती.
क़ाफ़िया और रदीफ
काफिया अरबी भाषा का पुल्लिंग शब्द है जिसके अर्थ हैं ”पीछे चलने वाला, पे दर पे (लगातार) आने वाला, इत्मे अरूज में रदीफ से पहले का लफ्ज”(7) हिन्दी में इसे अंत्यानुप्रास या तुक तथा अंग्रेजी में ‘राइम’ कहा जा सकता है. ग़ज़ल की शास्त्रीय संरचना में काफिया शब्द का प्रयोग शब्दों के उस समूह के लिये किया जाता है, जो मतले के दोनों मिसरों तत्पश्चात् प्रत्येक शेर के दूसरे मिसरे में रदीफ से पूर्व नियत स्थान पर आते हैं व समाना ध्वनि से उच्चारित किये जाते हैं. उदाहरण के लिये यह ग़ज़ल दृष्यव्य है-
क्या जाने कब कहां से ‘चुराई’ मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझो को ‘सुनाई’ मेरी ग़ज़ल.
पूछो जो मैंने उससे कि है कौन खुशनसीब
आंखों से मुस्कुरा के ‘लगाई’ ’ मेरी ग़ज़ल.
एक एक लफ्ज बन के उड़ज्ञ धुंआ धुंआ
उसने जो गुनगुना के ‘सुनाई’ ’ मेरी ग़ज़ल.
हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुन गुनाए है
‘राही’ तेरी जुबां पे न ‘आई’ ’ मेरी ग़ज़ल.(8) सैयदराही
यहां पर चुराई, सुनाई, लगाई, सुनाई, आई काफिये के शब्द हैं, जो मतले के दोनों मिसरों तत्पशचात् प्रत्येक शेर से दूसरे मिसरे में रदीफ से पूर्व अपनी सुनिश्चत जगह पर स्थित हैं. यह सभी शब्द ‘हम काफिया’ कहलायेंगे क्योंकि यह एक ही काफिये के अन्तर्गत आते हैं. हम काफिया के अन्तिम एक या एक से अधिक अक्षर समान होते हैं किन्तु यह आवश्यक भी नहीं है. क्योंकि काफिये में व्यंजन से अधिक  स्वर की समानता पर बल दिया जाता है. काफिया मात्र स्वर पर भी आधारित हो सकता है जिसमंे आ,ई, ऊ, ए, औ स्वर का निर्वाह किया गया हो जैसे-
दर्द सीने से उठा आंख से आंसू निकले
रात आई तो ग़ज़ल कहने के पहलू निकले
दिल का हर दर्द यूं शेरों में उभर आया है
जैसे मुरझाए हुए फूल से खुशबू निकले
जब भी बिछड़ा है कोई शख्स तेरा ध्यान आया
हर नये गम से तेरी याद के पहलू निकले
अश्क उमड़े तो सुलगने लगीं पलकें ‘राशिद’
खुश्क पत्तों को जलाते हुए जुगनू निकले (9) मुमताज राशिद
यहां काफिया ‘ऊ’ स्वर पर आधारित है. वास्तव में काफिया जो भी हो उसे ग़़ज़ल के मतले में स्पष्ट कर देना चाहिए क्योंकि मतले के बाद काफिया बदलने को दस्ताद शायरों ने अनुचित माना है.
अरबी फारसी में काफिये के नौ हर्फ (अक्षर) निश्चित है जो इस प्रकार है- (1) तासीस (2) दुखैल (3) कैद (4) रिद्फ (5) रवी (6) वस्ल (7) मजीद (8) खुरूज (9) नायरा.
वास्तव में काफ़िये का असली हर्फ रवी है. पहले चार रवी से पूर्व आते हैं और हरूफे असली कहलाते हैं तथा बाद में चार हर्फ रवी के बाद आते हैं और हरूये वसली कहलाते हैं. काफिये में रवी का होना बहुत आवश्यक है बाकी आठ हर्फ में से कुछ भी हो सकते हैं और नहीं भी. इन नौ हर्फों से संबंधित सभी कायदे कानून अरबी-फारसी भाषा व लिपि पर आधारित हैं जिन्हें ज्यों का त्यों हिन्दी भाषा में लागू नहीं  किया जा सकता है. (यों जिज्ञासुओं के लिए इनकी जानकारी इस अहयाय के अंत में पृथक से दी गई है)
ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में काफिये के बाद आने वाला शब्द या शब्द समूह रदीफ कहलाता है और यह पूरी ग़ज़ल मंे अपरिवर्तित रहता है.
जिस तरफ से आए थे किधर चले. (10) ख्वाजा मीरदर्द यहां पर ‘चले’ शब्द को ग़ज़ल में आदि से अंत तक काफिये के पश्चात् दोहराया गया है. अतः ‘चले’ इस ग़ज़ल की रदीफ कहलायेगी. रदीफ एक शब्द की भी हो सकती है और एक से अधिक शब्दों की भी.
यहां पर ‘तुम्हें याद हो कि न याद हो’ रदीफ मिसरे के आधे भाग मंें बराबर हैं. लम्बी रदीफों का प्रयोग, उर्दू शायरी के मध्य युग की विशेषता रही है. या परम्परा में अब भी ऐसी ग़ज़लें कही जा रही है. रदीफ ग़ज़ल का अनिवार्य अंग नहीं है. बिना रदीफ की गज़लें भी कहीं गई हैं इन्हें गैर मुरदिद्फ ग़ज़ल कहा जा सकता है. उदाहरण के लिए-
मौसम से निकले शाखों से पत्ते हरे-हरे
पौधे चमन में फूलों से देखे भरे-भरे
आगे किस के क्या करें दस्ते तमअ दराज
वह हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे
मरता था मैं तो बाज रखा मरने से मुझे
यह कहके कोई ऐसा करे है अरे-अरे
गुलशन में आग लग रही थी रंग-गुल से ‘मीर’
बुल बुल पुकारी देख के साहब परे-परे(12)
यहां दोहरा काफिया है परन्तु रदीफ अनुपस्थित है. रदीफ से शेर में वजन व ग़ज़ल की प्रभावोत्पादकता में वृद्धि होती है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता, यह मतले की दोनों पंक्तियों तथा प्रत्येक शेर की दूसरी पंक्ति में काफिये के बाद ही प्रयुक्त होती है.
4- बहर-
बहर अरबी भाषा का पुल्लिंग शब्द है, हिन्दी में इसके लिए छंद तथा अंग्रेजी भाषा में मीटर शब्द पर्यायबाची है. ग़़ज़ल के मिसरे जिस वजन पर आधारित होते हैं उसे ही बहर कहते हैं.
‘‘जैसे हिन्दी एवं संस्कृत की छंदोबद्ध कविता में विभिन्न छंदों का प्रयोग किया जाता है वैसे ही ग़ज़लें भी विभिन्न बहरों में कही जाती हैं, बहर में वर्ण, मात्रा, लय, गति, यति का ध्यान रखा जाता है. बहर वर्ण मात्रा में क्रमायोजन की आन्तरिक सृष्टि है. वह एक नियमित लय है और लय स्वयं में ही एक संयत व्यवस्था है, जिसका जन्म स्वरों के आरोह-अवरोह से होता है. उच्चारण की मंदता एवं तीव्रता तथा इन दोनों का विशेष क्रम ही लय की उत्पत्ति का प्रमुख साधन है. बहर की पाबंदी के कारण ही ग़ज़ल में संगीतात्मकता का गुण आ जाता है जिसके फलस्वरूप उसे अच्छे ढंग से गाया जा सकता है जिससे कि गति का क्रम ठीक बना रहे. यति का विधान भी किया गया है. पंक्ति पढ़ते समय सांय के टूटने के क्रम के अनुसार स्थान स्थान पर विश्राम लेना पड़ता है इसी विश्राम को यति कहते है. इस प्रकार गति और यति के संयोग से तथा इस संयोग को दृष्टि में रखकर बहरों का निर्माण हुआ है. बहर का पालन करने में मात्राओं की गिनती तो होती है साथ ही यति का विचार भी होता है. जिससे वज़न के नीचे वज़न आता है. जैसे वर्णिक छंदों में गुण वर्ण के नीचे गुरू, लघु के नीचे लघु आते हैं. ग़ज़ल में यद्यपि ऐसा नहीं होता फिर भी ग़ज़ल के अन्तःलय को साकार करने के लिये उसके समान मात्राओं के वर्ण समुदायों पर यति अवश्य आती है (13)
ग़ज़ल की बहरों का मूल उद्गम अरवी भाषा में मिलता है हिन्दी भाषा में यह ग़ज़ल विधा के साथ साथ क्रमशः फारसी, उर्दू से होती हुई सामने आयीं. अल्लास अखलाक साहब देहलवी ने अपनी पुस्तक ‘फनए-शायरी’ में बहरों का विस्तृत वर्णन किया है.(14) इस आधार पर ग़ज़ल की मूल बहरों का निम्न तालिका द्वारा समझा जा सकता है. इनमें से सात मूल बहरें तथा बहरें तथा शेष 12 मिश्रित बहरे हैं जिन्हें मूल बहरों के रूकनों के सम्मिश्रण से तैयार किया गया है. ये इस प्रकार हैं-
मूल बहरें-
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क्रमांक नाम नाम रूक्न संख्या आविष्कारक
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1 हजज मुफाइलुन 8बार खलीलबिन अहमद
2 रजज मुस्तफइलुन ‘’ ‘’   ‘’ ‘’
3 रमल फाइलातुम ‘’ ‘’ ‘’ ‘’
4 मुतकारिब फऊलुन ‘’ ‘’ ‘’ ‘’
5 कामिल मुतफाइलुन ‘’ ‘’ ‘’ ‘’
6 वाफिर मफाइलातुन ‘’ ‘’ ‘’ ‘’
7 मुतदारिक फाइलुन ‘’ ‘’ अबुल हसन
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(ब) मिश्रित बहरें-
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क्रमांक नाम अर्कान आविष्कारक
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1 मुनसिरह मुस्तफइलुन मफऊलात मुस्तफइलुन मफऊलात खलीलबिन अहमद
2 मुजारिअ मुफाइलुन, फाइलातुन मुफाइलुन फाइलातुम ‘’   ‘’
3 सरीअ मुस्तफाइलुन मुस्तफइलुन मफऊलात ‘’   ‘’
4 खफीफ फाइलातुन मुस्तफाइलुन फाइलुन ‘’   ‘’
5 मुज्तस मुस्तफइलुन फाइलातुन मफऊलात फाइलातुन ‘’   ‘’
6 मुक्तजब मफऊलात मुस्तफइलुन मफऊलात मुस्तफइलुन ‘’   ‘’
7 तवील फइलुन मुफाइलुन फइलुन   मुफाइलुन ‘’   ‘’
8 मदीद फाइलातुन फाइलुन फाइलातुन फाइलुन ‘’   ‘’
9 बसीत मुस्तफाइलुन  फाइलुन मुस्तफाइलुन फाइलुन ‘’   ‘’
10 जदीद फाइलातुन फाइलातुन मुस्तफाइलुन बजर चमहर 11 करीब मुफाइलुन मुफाइलुन फाइलातुन युसूफ नेशापुरी
12 मुशालातुन फाइलातुन फाइलातुन मुफाइलुन अज्ञात - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
विशेष:-
(1) मूल बहरों के सामने दिये रूक्न एक शेर में आठ बार अर्थात एक मिसरे में चार बार आयेंगे. जैसे हजज बहर का वजन होग. एक मिसरे में-मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन
(2) मिश्रित बहरों के सामने दिये हुए अर्कान एक शेर में दो बार अर्थात एक मिसरे में एक बार आयेंगे जैसे मनसिरह बहर में एक मिसरे का वजन होगा-मुस्तफाइलुन मफऊलात मुस्तफाइलुन मफऊलात.
(3) मूल बहरों में वाफिर तथा मिश्रित बहरों में तवील, मबीद व बसीत विशेषतः अरबी भाषा के लिये थीं. इसी प्रकार जदीद, करीब, मुशाकुल मिश्रित बहरें खास तौर से फारसी के लिये रहीं.
इन प्रारम्भिक उन्नीस बहरों में से अरबी के लिये विशेषतः निर्मित चार बहरों को छोड़कर शेष पन्द्रह फारसी में प्रचलित हुई. इन बहरों में रूक्न की आनुधिक उसके बढते 35-36 तथा बाद में छियात्तर तक जा पहुंची. चूंकि यह संख्या बृद्धि रूक्न के मूल स्वरूप में परिवर्तित रूप की वजह से अर्कान भिन्न हेाने के कारण संभव हुई अतः इन बहरों को परिवर्तित बहरें नाम दिया जा सकता है. (रूक्न के स्वरूप में परिवर्तन की प्रकिक्रया जेहाफ व इस प्रक्रिया से निर्मित बहरों की मुजाहिफ बहरें कहा गया है). उपर्युक्त उन्नीस बहरों के अतिरिक्त, परिवर्तित बहरें जो कि प्रारम्भ में 57 थीं.
विशेष-
1- उपर्युक्त 57 परिवर्तित बहरों के नाम के आगे जो अर्कान लिखे गये हैं वह एक मिसरे का बजन है अर्थात एक मिसरे में एक बार व शेर में दो बार प्रयोग किये जाते हैं.
2- जिन बहरों में आठ रुवन, छः रुवन, व चार रुवन, प्रयुक्त होते हैं उन्हें क्रमशः मुसम्मन मुसद्दस, व मुरब्बअ कहते हैं ‘परिवर्तित’ बहरों के नाम में इन शब्दों का प्रयोग किया गया है.
3- परिवर्तित बहर जिस मूल बसर का एक प्रकार है उस बहर का नाम भी जुड़ा हुआ है.
4- प्रत्येक मूल बहर के कितने परिवर्तित रूप हैं यह भी स्पष्टतः गिना जा सकता है.
5- परिवर्तित बहरों का नाम जेहाफ की भिन्न स्थितियों पर आधारित होता हैत्र. जैसे परिवर्तित बहर क्रमांक-1 बहरने हजज मुसम्मन अखरब में मुसम्मन एक शेर में आठ रूवन होने के कारण जोड़ा गया है, तथा बखरब शब्द मुरक्कब जेहाफ के एक प्रकार ‘‘खरब’’ के कारण है. इसमें बहरें हजज के निर्धारित रुक्न मुफाइलुन में से मीम और नून का गिरा देने से फाहलों शेष रहता है. इसकी जगह मफऊलों काम में लाते हैं इस रुक्न को अखरब कहते हैं. मफाइलुन के साथ परिवर्तित मफऊलो रुक्न का प्रयोग करने के कारण ही इस बहर को बहरे हजज मुसम्मन अखरब नाम दिया गया है. इसी तरह विभिन्न बहरों में मकफूफ, मकसूर, मकतूअ, मतबी, मकनूर, मकबूज, मखबूर इत्यादि शब्दों का प्रयोग बहर के मूल रुक्न में जेहाफ की विभिन्न स्थितियों से होने बाले परिवर्तन की प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है, जो कि एक अलग विषय है और यहां उसकी विस्तृत चर्चा संभव नहीं.
इस प्रकार 19 मूल बहरों व 57 परिवर्तित बहरों कुल 76 बहरों के बाद भी समर्थ रचनाकारों ने समय समय पर नई नई बहरों की रचना की है.
5- गेयता-
‘‘अरबी शायरी में प्रशस्ति में गाये जाने बाले कसीदों के प्रारम्भि अंश को ग़ज़ल कहा गया है इस प्रकार ग़ज़ल का उद्गम स्त्रोद यदि एक और कसीदा है तो दूसरी और गायन भी’’(15)
ग़ज़ल अपने शैशब काल से ही विरह गीत के रूप में उभर कर सामने आई व गाई जाती रही तथा राजदरबारों में मनोरंजन के साधन रूप में इसका उपयोग होता रहा. ग़ज़ल के मूल स्वभाव के अनुरूप चूंकि इसमें प्रिय के मिलन या विछोह की मार्मिक घटनायें अंकित होती हैं, अतः इनका प्रभाव गाये जाने से जितना अधिक हो सकता है उतना सहज ढंग से कहने में नहीं. इस कारण भी गैयता ग़ज़ल के लिये आवश्यक मानी गई. गेयता के लिए लय की उचित योजना बहुत जरूरी है इसीलिये अरबी फारसी की बहरें जो मात्राओं या वर्णों पर आश्रित होने के बजाय लयखण्डों पर आधारित हैं अधिक अनुकूल है. इन लय खण्डों में स्वर के उतार चढ़ाव की विशेष व्यवस्था विधमान रहती है, जिससे उच्चारण में असुविधा न हो और ग़ज़ल गैयता बनी रही. ग़ज़ल का प्रत्येक मिसरा एक निश्चित क्रम बद्ध लय पर निर्मित होता है. भाषा की सरलता, भावों की कोमलता व कर्ण-प्रिय शब्दों का चयन ग़ज़ल को गेय बनाता है. गेयता ग़ज़ल का स्वभाव भी है और उसकी आत्मा भी. निश्चित ही गेयता से ग़ज़ल की प्रभावोत्पादकता में वृद्धि होती है.
ग़ज़ल रचना में शिल्प संबंधी सारी कसरत केवल ग़ज़ल को गेय बनाने के लिए ही है, चाहे वह बहर का निर्वाह हो या काफिये का अनुशासन, शब्द को कोमल बनाकर प्रयोग करने की प्रवृत्ति तथा हस्व ध्वनि को दीर्घ या दीर्घ ध्वनि को हस्व के रूप में ऊच्चारित करने की विवशता का मूल कारण भी यही है. ग़ज़ल मूलतः गेय काव्य है और इन सभी प्रयत्नों का एक मात्र उद्देश्य ग़ज़ल की गेयता प्रदान करना है. ग़ज़ल के संदर्भ में गेयता के महत्व को किसी भी युग में नकारा नहीं गया. गेयता ग़ज़ल का प्राण तत्व समझी जाती है. अरबी फारसी और उर्दू ग़ज़ल परम्परा में ग़ज़ल को गेय बनाने के लिये उच्चारण के समय शब्दों में कुछ तब्दीलियां की जाती रही है. जैसे मेरा तेरा को मिरा, तिरा तथा निगाह व गुनाह आदि को क्रमशः निगह, गुनह कहना. ए स्वर को अ या इ, औ को उ (जैसे कोहरा को कुहरा) कहने का कारण लय को स्थायित्व प्रदान करना है. जिससे कि ग़ज़ल में गेयता के गुण को अक्षुण्ण रखा जा सके.